Natasha

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राजा की रानी

उस दिन फिर मेरा जी न चाहा कि नीचे जाऊँ, इसलिए, नन्द और टगर के युद्ध का अन्त किस तरह हुआ- सन्धि-पत्र में कौन-कौन-सी शर्तें निश्चित हुईं, सो मैं कुछ नहीं जान पाया। परन्तु, बाद में देखा कि शर्तें चाहे जो हों, विपत्ति के समय वह 'स्कैप ऑफ पेपर' (कागज का रद्दी टुकड़ा) किसी काम नहीं आता। जब जिसे जरूरत होती है, खिलवाड़ की तरह उसे फाड़ फेंकता है और दूसरे का ब्यूह भेद कर डालता है। बीस बरस से ये दोनों यही करते आए हैं तथा और भी बीस बरस तक ऐसा न करते रहेंगे, इसकी शपथ स्वयं विधाता भी नहीं ले सकेंगे।

सारे दिन तो आकाश में बादलों के टुकड़े यहाँ से वहाँ घूमते रहे; परन्तु, अब शाम के लगभग एक गहरा काला बादल सारे क्षितिज को ढँककर धीरे-धीरे सिर उठाकर, ऊपर आने लगा। मालूम हुआ कि खलासियों के मुँह और ऑंखों पर मानो घबराहट की छाया आ पड़ी है। उनके चलने-फिरने में भी मानो एक प्रकार के घबराहट के चिह्न नजर आने लगे हैं जो इसके पहले नहीं थे।

एक बूढ़े-से खलासी को बुलाकर पूछा, “अजी चौधरी, आज रात को भी क्या कल ही के समान ऑंधी आवेगी?”

विनय से चौधरीजी वश में हो गये। खड़े होकर बोले, “मालिक, नीचे चले जाइए; कप्तान ने कहा है, साइक्लोन (= बण्ण्डर) उठ सकता है।”

पन्द्रह मिनट बाद ही देखा कि उसका कथन निर्मल नहीं है। ऊपर जितने भी यात्री थे उन सबको खलासी लोग एक तरह से जबरन 'होल्डर' में उतारने लगे। दो-चार लोगों के आपत्ति करने पर सेकण्ड ऑफिसर ने खुद आकर उन्हें धक्के मारकर उठा दिया और उनके बिस्तर वगैरह लातों से हटाना शुरू कर दिया। मेरा ट्रंक, बिस्तर आदि तो खलासी लोग झटपट नीचे उठा ले गये; किन्तु, मैं खुद एक तरफ खिसक गया। मैंने सुना कि सबको- अर्थात् जो हतभागे दस रुपये से अधिक किराया नहीं दे सकते थे उन्हें- उस जहाज के गर्भ-गृह में भर के उसका मुँह बन्द कर दिया जायेगा। उनकी खैरियत के लिए यही एक उपाय था।

किन्तु, मुझे खुद अपने लिए खैरियत की यह व्यवस्था किसी तरह पसन्द नहीं आई। इसके पहले साइक्लोन नामक वस्तु को समुद्र में तो क्या, जमीन पर भी नहीं देखा था। कैसा इसका उपद्रव होता है, कैसा इसका स्वरूप है और अमंगल करने की कितनी इसकी शक्ति है, मैं बिल्कुहल नहीं जानता था। मन ही मन सोचने लगा कि मेरे भाग्य से यदि ऐसी वस्तु का आविर्भाव होना सन्निकट ही है, तो फिर उसे बगैर अच्छी तरह देखे नहीं छोडूँगा। भाग्य में जो बदा हो सो हो। और तूफान में यदि जहाज डूबना ही है, तो इस तरह प्लेग के चूहे की तरह पिंजरे में कैद होकर और सिर पटक-पटककर खारे पानी में क्यों मरूँ? इसकी अपेक्षा जब तक बने, हाथ-पाँव हिलाकर, लहरों के हिंडोले पर झूलते-उतराते हुए एक गोता लगाकर पाताल के राजमहल का अतिथि होना अच्छा। किन्तु, यह उस समय मुझे मालूम न था कि राजा का जहाज आगे-पीछे लाखों-करोड़ों हिंस्र अनुचरों के बगैर काले पानी में एक डग भी नहीं चलता और उन्हें लोगों का कलेवा कर डालने में घड़ी-भर की देर नहीं लगती।

बहुत समय से थोड़ी-थोड़ी वृष्टि हो रही थी। शाम के लगभग हवा और वृष्टि दोनों का ही वेग बढ़ गया। यह हालत हो गयी कि भाग निकलने की भी कोई जुगत न रही। जहाँ भी मिले सुविधानुसार एक आश्रय-स्थान खोजे बगैरे काम नहीं चल सकता। शाम के अंधेरे में जब मैं अपने स्थान पर वापिस आया तब ऊपर का डेक निर्जन हो गया था। मस्तूल के पास उचककर देखा कि ठीक सामने ही बूढ़ा कप्तान हाथ में दूरबीन लिये ब्रिज के ऊपर यहाँ से वहाँ दौड़ रहा है। इस डर से कि एकाएक उसकी शुभ दृष्टि में पड़कर फिर से, इतने कष्ट के बाद भी, दुबारा उसी गव् में न घुसना पड़े, एक ऐसी जगह खोजने लगा जहाँ सुभीते से बैठ सकूँ। खोजते-खोजते आखिर एक जगह मिल गयी जिसकी कि मैंने पहले कभी कल्पना भी नहीं की थी। एक किनारे बहुत-सी भेड़ों, मुर्गियों और बत्तखों के पिंजड़े एक के ऊपर एक गँजे हुए थे। उछलकर मंब उन्हीं के ऊपर बैठ गया। जान पड़ा, ऐसी निरापद जगह शायद जहाज भर में और कहीं नहीं है। किन्तु, तब भी बहुत-सी बातें जानना बाकी थीं।

वृष्टि, हवा अन्धकार और जहाज का झूलना- ये सभी धीरे-धीरे अधिकाधिक बढ़ने लगे। समुद्र की लहरों का आकार देखकर मैंने मन ही मन सोचा, यही है शायद वह साइक्लोन; किन्तु वह सागर के समीप सिर्फ गौ के खुर के गढ़े के समान ही था, इस बात को अच्छी तरह हृदयंगम करने के लिए मुझे और भी थोड़ी देर ठहरना पड़ा।

एकाएक छाती के भीतर तक कँपकँपी पैदा करता हुआ जहाज का भोंपू बज उठा। ऊपर की ओर ताका तो जान पड़ा, मानो किसी मन्त्र के बल से आकाश का चेहरा ही बदल गया है। वे बादल अब नहीं रहे- मालूम हुआ कि सब तरफ से छिन्न-भिन्न होकर जैसे सम्पूर्ण आकाश हलका होकर कहीं ऊपर की ओर उड़ा जा रहा है। दूसरे ही क्षण समुद्र के एक प्रान्त से एक ऐसा विकट शब्द तेजी से आकर कानों में पैठ गया कि मैं नहीं जानता, उसकी किसके साथ तुलना करूँ।

लकड़पन में अंधेरी रातों में दादी की छाती से लगकर एक कहानी सुना करता था। किसी राजपुत्र ने डुबकी लगाकर तालाब के भीतर से एक चाँदी की डिबिया निकाली थी और उसमें बन्द सात सौ राक्षसियों के प्राणरूप एक सोने के भौंरे को चुटकी से मसलकर मार डाला था। फिर वे सात-सौ राक्षसियाँ मृत्यु यन्त्रणा से चीखती चिल्लाती हुईं सारी पृथ्वी को पैरों के बोझ-से कुचलतीं चूर्ण-विचूर्ण करतीं दौड़ आई थीं। वैसा ही यह भी कहीं कोई विप्ल्व-सा हो रहा है, ऐसा जान पड़ा; परन्तु, इस दफे सात सौ करोड़ राक्षसियाँ हैं- वे उन्मत्त भाव से कोलाहल करती हुई इसी ओर दौड़ी आ रही हैं। आ भी पड़ीं- राक्षसियाँ नहीं, परन्तु, तूफानी हवाएँ। तब मैंने सोचा कि इनकी अपेक्षा तो उन राक्षसियों का आना ही कहीं अच्छा था।

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